Monday, 13 July 2015

आबला -पा चलते चलते आता   मै
एक  बार  और  जान  से  जाता  मै
कोई मस्जिद-ओ-मीनार मिल  जाता
वही  थोड़ी  फुर्सत पाता  मै
यूँ तो मै भी  हूँ  राहत -तलब
पर  शबेगमको  राहदर बनाता   मै
हो जाऊं गर ख्वैशे रहत्कादा
जहाँन-ऐ-आशियाना  सजाता  मै
जले  तो  नर्म  सरगोशी होता
बुज्हे  तो  आबोताब  जलाता  मै
दरो-ओ-दिवार-ओ-ज़मीं-ओ-हवा
शफीक -ओ -शमीम  फैलाता  मै
जिस्म की  उफ को  मौसूफ़ दिली

ज़िदको-अदम आबाद दिखाता मै


आब्रू बर किए घर मेरे किस किस बहाने आये
कभी भेजा किसिको कभी खुद ही मनाने आये
मै तो मध्होश था इलाही उनको कुछ होश आये
अब ये भी भूले के एक बार मुहोब्बत जताने आये
अफसोस उनकी बेरुखी पर हम कैसे सुनाने आये
सोज-ए-वक्त आखिर जाने क्या लेकर ज़माने आये
राह कुर्बान किये हमने वो मेरे नज़दिके-सर आये
अबके मुज़्तर-ए-दम भरने सिनेमे कुछ डुबाने आये
ज़हिर है आज उनका अनेका मुजमीर इरादा है
कल थे मुतस्सीब आज मुतस्सिफ बनाने आये
हाथ शमा ले किताब-ए-गम गुसार पढाने आये
देखिये इर्द गिर्द कितने फना-ए-इश्क़ परवाने आये
वो तक़दीर-तलब आये तो इंसान को जगाने आये
खुद मुज्तरीफ जान-ए-ज़िद निभाने दोस्ताने आये


आईना सामने और शक्ल सूरत नहीं मिलती
मजमा-ए-शहर में खुदकीही आह्ट नहीं मिलती

अहिस्ता खिराम चलते थे फिक्रे-उकबा कबसे 
वस्त सैल-ऐ-तख़लीक़ वाजिबात नहीं मिलती

खूब यफ्ता टहले जले है कुचेमे उनके
क्यूंकर अशिकी खबर-ओ -फुर्सत नहीं मिलती

चले जा रहे है कबसे फना-ए-तलब
बस हमको वो वक्त वो तारीख़ी वफ़ात मिलती

उम्र-ए-जवा क्यूँ ना होंगे ऐसी कशिश
अक्ल को मियाद-ए-सोहोलियत  नहीं मिलती


आइये  छूके  वफ़ा -ऐ -रस्म  पुरजोर चाहत  करें
लाकर  हवाए  जलने मे कुछ तो राहत  करें
बेहाल  मुन्तशिर  माजूर   है  दिल  अज्जा अज्जा
बेवजह  क्यों दुश्मनोकी   नासाज तबियत करें 
यह  किस्मत  भी  क्या  है  मिजाज़ -ऐ -शरीर
कोई  डूबे  मज़ेमे  तो  कैसे किनारा मुसीबत  करें
ज़िद  मेरी  कैसी  है  इंशा अब  तू  ही   बता 
लिख  लिख  शाम -ओ -सेहर  बर्बाद  रियासत  करें
तक़दीर को  फरमान  दे  कुछ  इशारा  करें 
तदबीर -ऐ -इल्म  चाहिये   तो  कातिब  इशारत   करें 
अहिस्ता  अहिस्ता  यह  बात  समझ में  आये  है
पहुंचे  अदम तो  चलिए   ताजिर  हिसाबात  करें
बेवक्त  शामियाना  बिछाये  कद्र ढूंढे  है यारा 
बनाये  आशियाना  वो  अह्तिराज-ए-ज़ुल्मत  करें
ज़िद आखिर निकला ऐसा कम-अक्ल  तीरंदाज्ज़ 
वो  बैठे  शाख  पर  और  तू  उजलत करें
आखिर  एक  फासला  रह  जायेगा  मौला  दरमियाँ
क्या  क्या  इनाम  देके    ज़माना  उजरत  करें








No comments:

Post a Comment